- तीन दिवसीय चंबल लिटरेरी फेस्टिवल दूसरी बार आयोजित
- इस बार वर्चुअली तरीके से ही हुआ आयोजन
- चंबल में भी पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति और अनदेखी पर जताई गई चिंता
इटावाः चंबल लिटरेरी फेस्टिवल-2 के तीन दिवसीय आयोजन के पहले दिन चंबल में बिगड़ते पर्यावरण को लेकर चिंता जताई गई। विकास के साथ बचाव की वकालत की गई। कहा गया, जब तक छोटी नदियों को नहीं बचाया जाएगा तब तक बड़ी नदियों को जिंदा रखने की बात बचकानी होगी। विकास का सौदा जल, जंगल, जमीन के विनाश से नहीं किया जाना चाहिए। चंबल फाउंडेशन की ओर से हर साल चंबल लिटरेरी फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है। इस बार हो रहे तीन दिवसीय आयोजन में अलग-अलग विषय पर ऑनलाइन परिचर्चा का आयोजन किया गया। फेस्टिवल के पहले दिन ‘चंबल में पर्यावरण संकट’ पर चर्चा की गई। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर इसका प्रसारण किया गया।
चंबल लिटरेरी फेस्टिवल 2 में हिस्सा लेते हुए वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और चिंतक योगेश जादौन ने चंबल में बढ़ रहे पर्यावरण संकट को रेखांकित किया। उन्होंने चंबल के उदगम स्थल मध्य प्रदेश स्थित इंदौर के जानामऊ से ही बढ़ रहे चंबल के संकट के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि सरकारों को नदी, जंगल और जमीन की कोई चिंता नहीं है। उनके भाषणों में भी इनका जिक्र जनता की संवेदना बटोर लेने तक ही सीमित है। उन्होंने कहा कि छोटी नदियों को बचाने के लिए जब तक जनता का सशक्त चेतन आंदोलन नहीं होगा इस दिशा में कुछ भी कहना कोरी बकवास है। चंबल के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि यह देश की सबसे कम प्रदूषित नदियों में एक है। यह एक मात्र नदी है जहां बड़ी संख्या में कैटफिश, आठ तरह के कछुए, डाल्फिन, मगरमच्छ और घड़ियाल पाए जाते हैं। नदियों को जोड़ने के सवाल पर कहा कि इससे क्या परिणाम निकलते हैं यह अभी देखा जाना बाकी है। मगर, हर नदी का अपना तंत्र है। इसकी अपनी प्रकृति और ढंग है। सबका पानी और वातावरण अलग है। ऐसे में नदियों को जोड़ने का काम काफी सोच समझ कर किया जाना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल तो नदियों में साल भर पानी रहने का है। इस दिशा में सरकार कुछ नहीं सोच रही है। इसके लिए छोटी नदियों को पहले अतिक्रमण से मुक्त कराना होगा। उनके किनारे तालाब, पोखर, जोहड़ बनाने पर ध्यान देना होगा। जब जलस्तर बढ़ेगा तो नदियों में साल भर पानी भी रह सकेगा। इस परिचर्चा में पर्यावरणविद् राधेगोपाल यादव भी जुड़े। परिचर्चा का संचालन क्रांतिकारी इतिहास को खोजने सँवारने में लगे लेखक शाह आलम ने किया।
दूसरे दिन चंबल लिटरेरी फेस्टिवल में चर्चा
परिचर्चा का विषय ‘चंबल के उपेक्षित धरोहर’ रखा गया। इस सत्र में बीहड़ क्षेत्र के वरिष्ठ संवाददाता शंकरदेव तिवारी ने कहा कि जो चंबल हमारी पुरातात्विक और प्राकृतिक धरोहरें की खान रही है। आज के दौर में उन विरासतों को भी संरक्षित और सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं। चंबल के धरोहर हाथ फैलाये हमें अपनी तरफ उम्मीद से देख रहे हैं। उनको संरक्षित करने के नाम पर भ्रष्ट सरकारी तंत्र फल-फूल रहा है। हमने कागजों पर हो रहे ऐसे कामों की बहुत पोले खोली हैं।
वरिष्ठ लेखक-पत्रकार खिजर मोहम्मद कुरैशी ने ‘चंबल के उपेक्षित धरोहर’ विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि चंबल में विकास को तवज्जो नहीं दी जा रही है। चंबल के गौरवमयी इतिहास की चर्चा ही कम होती है। उन्होंने चंबल के कटाव से बीहड़ के गोद में समा जाने वाले कई बेचिराग गांवों का जिक्र किया कि किस तरह से यह गांव उपेक्षा की मार से चलकर दूसरे जगह बस जाते हैं। आगे कहा कि यहां अपने दम पर सबसे बड़ा रूई उद्योग खड़ा था जो उजड़कर वीरान हो गया। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि चंबल में बागियों का भी उसूल था लेकिन आज चंबल की रेती में नई तरीके से डकैती डाली जा रही है।‘चंबल के उपेक्षित धरोहर’ चर्चा सत्र का संचालन सीएलएफ के संयोजक डॉ. कमल कुमार कुशवाहा ने किया।
चंबल लिटरेरी फेस्टिवल का आखिरी दिन, भ्रांतियों पर चर्चा
चंबल लिटरेरी फेस्टिवल के आखिरी दिन ‘चंबल अंचलः पूर्वाग्रह और यथार्थ’ परिचर्चा पर बोलते हुए वरिष्ठ लेखक-पत्रकार डॉ. राकेश पाठक ने कहा कि चंबल को लेकर तमाम भ्रांतियां सिनेमा ने बनाई है जबकि चंबल पीले सोने का देश का देश है। चंबल को लेकर एक पूर्वाग्रह बन गया है कि यहां डकैत होते रहे हैं, इसलिए ही ये पिछड़ा है, जबकि ये पूरी तरह से सही नहीं है। हिंदी सिनेमा ने भी चंबल की इस तरह की छवि बनाने का काम किया। चंबल के नौजवान बड़ी संख्याओं में देश की तीनों सेनाओं में शामिल होते हैं। चंबल के अधिकतर गांवों में देश के लिए जान देने वाले शहीदों की लम्बी श्रंखला है। फिर भी अब भी डकैतों के लिए ही जाना जाता है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। चंबल बहुत समृद्ध क्षेत्र है, जहां हर क्षेत्र में काम करने वाले बहुत बड़े-बड़े लोग पैदा हुए। इसलिए ये पूर्वाग्रह टूटना चाहिए।
चंबल के शोधार्थी डॉ. अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि चंबल की लोक संस्कृति अपने आपमें बहुत सशक्त रही है। जिसने आजादी आंदोलन में फिरंगी सरकार को पानी पिला दिया। उन्होंने कहा कि चंबल के पूरे इलाके को गलत तरीके से देखा गया। चंबल के बीहड़ों को इस तरह दिखाया गया, जैसे चंबल में सिर्फ यही होता रहा हो, जबकि ऐसा नहीं होता। न पहले था, न अब ऐसा है। ये अहम मुद्दा है कि आज भी चंबल के लोगों को बौद्धिक स्तर पर, सांस्कृतिक स्तर पर कमतर दिखाने की कोशिश की जाती है। जबकि चंबल इस मामले में भी बहुत विकसित रहा है। यथार्थ ये है कि सरकारें इस पूरे इलाके में ध्यान ही नहीं देती। यहां न पानी है ठीक से, न शिक्षा के साधन है, न आजीविका के साधन हैं। आखिर चंबल और इसकी विरासत को क्यों नज़रअंदाज किया गया। इस सत्र का संचालन भी शाह आलम ने किया। चंबल लिटरेरी फेस्टिवल में के तीन दिवसीय आयोजन में टेक्निकल सपोर्ट मोहित यादव ने दिया।
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