आचार्य राम चन्द्र यादव की पुण्य तिथि 13 फरवरी पर विशेष ------
पिता जी एक खेतिहर किसान के बेटे थे!
पिता जी को मस्का मालिश जिससे राजनीति और समाज में व्यवहार कैसे करें का ज्ञान बिल्कुल नहीं था ।यह सब उनके रस्मो रसूख के खिलाफ था।गोरखपुर मुख्यालय गांव से दूर नहीं था फिर भी उनकी आवाजाही कम थी।कभी कभी डीआईओएस कार्यालय और तमकुही कोठी पर जाते और वापस चले आते। इसके अलावा उनकी शहर में कोई दिलचस्पी नहीं थी।बचपन में ज्ञान की सीमाएं सीमित होती है।घर खेत खलिहान यही मेरे इतिहास और भूगोल की हदे थी।चाहते हुए भी कभी उनके साथ हाट बाजार नहीं जा पाया।उस दौर में एक पिता पुत्र की प्रगति भी इतनी सी थी। पिता जी सवाल करते और हमलोगो का सवाल करने की छूट नहीं थी।
कंचन काया,धोती -कुर्ता के ब्रांड,चेहरे पर मोटे ग्लास का चश्मा,छह फ़ीट लंबा बेहद आकर्षक ब्यक्तित्त्व,जहाँ खड़े होते थे मानो कालिदास की समस्त उपमा लेकर खड़े हो।
प्रारंभिक पढ़ाई अपने ननिहाल विशुनपुरा,गोरखपुर के प्राथमिक पाठशाला से शुरू की।आगे व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में विश्वविद्यालय तक का सफर।यह वह दौर था जब गरीब पिछड़े उच्च शिक्षा अर्जित नहीं कर पाते थे।पढ़ने की जिजीविषा ऐसी कि बीस -पच्चीस किलोमीटर पैदल पढ़ने जाते थे।बाढ़ के दिनों में नदियों को तैर कर पार कर जाना आम बात थी।कालांतर में एक प्रतिष्ठित कॉलेज में शिक्षक और प्रधानाचार्य हुए।समय के पाबन्द,स्पष्टवादी कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक होने के साथ केन यूनियन सरदारनगर में डायरेक्टर के रूप में भी प्रतिष्ठित रहे।नैतिक सत्साहस का परिणाम था तमाम गरीबों की पढ़ाई-लिखाई की फ़ीस आदि दे दिया करते थे।पर उपकार उनके जीवन का मिशन था।इलाके में लोकप्रियता का आलम ये रहा कि उनके भाई दो दशक से बड़ी ग्राम सभा के प्रधान रहे।दूरदृष्टि गजब की थी।संयुक्त परिवार के प्रबल हिमायती थे।
जिस दौर में परिवार तरक्की के नाम पर टूट गए,सहोदर भाइयो के बीच बोलचाल बन्द हो जाये।माँ-बाप को अपने बच्चों को लेकर लज्जा आने लगे।भाषा से पांडित्य तो लोग बघारते हों,राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बातें करते हों लेकिन अपने भाई को पट्टीदार बना लेते हो।ऐसे दौर में आप ने पढ़े-लिखे बेहद अनुशासित एक बड़ा परिवार खड़ा कर दिया।यह उपलब्धि आप को शिरमौर बना दी।खिलाड़ी,किसान और विद्यार्थी यही उनके संवाद के हिस्से थे। वजह था किसान - कबीला पशुपालक संस्कृति से ही उनके व्यक्त्तित्व का निर्माण हुआ था।
एक कुशल तैराक थे 60 के उम्र में भी भरी नदी को तैर कर पार कर जाते।उनके तमाम पहलवान शिष्य प्रदेश और देश में नाम कमाए।एक मुक़म्मल किताब थे।अध्यापन-अध्यापन के अलावा गॉव इलाके के झगड़े झमेले को पंचायत से हल करने में दिलचस्पी लेते थे।अत्यंत भावुक और सहज व्यक्ति थे आसानी से कोई अपनी बात मनवा लेता था।
अपने बारे में कभी मुगालता या वैशिष्ट्य नहीं पाले। तीज त्योहार में दिलचस्पी नहीं थी।परिवार के अभिभावक के रूप में सफल और सजीव थे अर्थात मुखिया मुख सो चाहिए खान - पान सब एक।उक्त पंक्तियों को परिभाषित करता जीवन।सांसारिक दुर्गुणों से लगभग दूर।यह बात दीगर है कि व्यक्ति में गुण दोष साथ साथ चलते हैं लेकिन जीवन बैलेंस था। गांव गरीब में मुक्त हस्त से खर्च करते थे।हमको यह याद नहीं है कोई कभी कुछ मांगा और उनसे न पाया हो।कुछ वापस करते कुछ नहीं भी करते।पैसे के बदले ब्याज के शक्त विरोधी थी।
श्रम लोग और अध्ययन शील विद्यार्थियों के कायल थे।
अपने 40 साल के संघर्ष के बाद एक ऐसा परिवार छोड़ कर गए जिसमे आज भी 5 दर्जन से ज्यादा लोग एक साथ खुशी-खुशी रहते हैं।परिजन उनकी स्मृति में विद्यालय और महाविद्यालय बनवाये क्योकि आप को विद्यार्थी और विद्यालय से बड़ा प्रेम था।यह भी एक अप्रिय सच है उनके भौतिक अनुपस्थिति से
परिवार की परंपरा और नेक नियति पर मानो ग्रहण सा लग गया!अब लोग मॉडर्न या विंदास हो गए या मोर्डन होने की नई परिभाषा गढ़ दिए।इसमें दो मत नही है परिवार के स्वास्थ्य में जरूर कमी आ गयी है।मानव मुक्ति के सफर में हुश्न का अब वो इत्तेफ़ाक़ नही रहा।
एक प्रसंग है।शिवरात्रि का दिन था। माता जी घर की महिलाओं के साथ दुग्धेश्वर नाथ मंदिर गई थीं।उस रोज देर शाम को आई।आते ही उन्होंने पूछा - भोजन कर लिए है?न जाने क्यों उस दिन वो बहुत नाराज थे।डपटते हुए कहे -' भोजन अब तुम लोगो के साथ नहीं करेंगे।'पूरे परिवार में अजीब सा सन्नाटा पसर गया।बहुत मनाने के बाद भी एक साथ भोजन के लिए तैयार नहीं हुए।एक रट लगाए रहे कि अलग भोजन करेंगे तो करेंगे ही।उन्होंने अलग लिट्टी और चोखा लगाया।
उनका गुस्सा कुछ कम हो गया था।भोजन तैयार होने के बाद अपने छोटे भाई के पास आए और कहे - 'भाई-भाई की भुजा होता है।'भोजन अलग पकने से विचार भी अलग पकने लगते हैं और सहोदर भाई पट्टीदार हो जाता है फिर अपने भाई के साथ भोजन किए।बेहद भावुक संवाद सुनकर परिजन के रोंगटे खड़े हो गए और आंखो से अश्रु निकल पड़े। उनके जीवन के प्रेरक
प्रसंग तो अनेक हैं मसलन किसान नेता स्वर्गीय प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह के हस्तक्षेप से टीचर ट्रेंनिग के लिए नामांकन और 1977 में साइकिल की चोरी जैसे मामले लोक सभा के तत्कालीन सदस्य विशारद ने उनके कहने पर लोक सभा में उठाए,अर्थात जिंदगी के छोटे- छोटे हिस्से को लेकर सजग और सतर्क थे।संस्कृत साहित्य और व्याकरण के अच्छे जानकार थे।जिसका असर बातचीत में दिखाई देता था।उनकी आलमारी प्रेमचंद के साहित्यिक रचनाओं से भरे रहते। महज 22 साल के उम्र में गांव में एक विद्यालय खोलने में महती भूमिका निभाए।हर आम और खास व्यक्ति का बच्चा पढ़े और बढ़े।जीवन भर अपने किरदार से लोगो को प्रेरित करते रहे।उनका भी मानना था शिक्षा वह शेरनी का दूध है जिसे पीकर हर शख्स दहाड़ सकता है। लोकतंत्र में गजब की निष्ठा थी ।चुनावों में बहुत सक्रिय रहते थे। चौधरी चरण सिंह के चुनावी सभाओं,उनके आदर्श और उनसे मुलाक़ात का अक्सर जिक्र करते थे।
जीवन को सरल और साहसिक बनाया।जीवन की तमाम लड़ाइयां जीतकर नायकत्व को प्राप्त किया।
आप के व्यक्तित्व के सामने हमारी सारी हदे बौनी हैं।आप ने अपने को कभी समझाया नहीं। इंसानों की एक आदत आम है कि वो अपने साथ धोखा करता फिर अपने को समझा लेता। अंदर बाहर सब एक समान स्वांग तो बिल्कुल नहीं।
उनका कहना था यदि खुद से नहीं हारे तो जीत निश्चित है।लक्ष्य निर्धारित करो उसके अनुरूप पढ़ो।बिना लक्ष्य के जीवन कटी पतंग है।आप ने साधारण होने के दौड़ में हमें आगे बढ़ाया।असाधारण बनने की दौड़ अहंकार की दौड़ होती है सदा आप ने अपने आचरण से समझाया।अब वे दिन नहीं आने वाले जब कोई कहेगा बड़ा डिफाल्टर और फिलास्फर है जिज्ञासु।
जिंदगी तब तक खुशगवार नहीं होती जब उसमे गम की हिस्सेदारी न हो।यह गम हमारी जिंदगी का ईंधन हैं जो हमें रचनात्मक बनाता है।हमारी अधूरी इच्छाए पूर्ण इच्छाओ से बड़ी होती हैं।मानव मुक्ति के सफ़र में बीच मार्ग में छोड़कर असमय विदा हो गए। व्यक्ति मर जाता है लेकिन यश सदा जीवित रहते हैं।आप भी सदा जीवित रहेंगे।अपने लगाए विद्यालय रूपी पौधों में,कमजोर की दुआवो में,इलाके के हसते जीवन में,सियासत के नव प्रयोग में जिसको कभी आप ने जीया था।हर वक़्त तमाम बुलंदियों में उदाहरण के रूप में प्रत्यक्ष रहेंगे।भाग्य वालो के लिए कर्म का दर्शन लेकर सदा प्रकाशित रहेंगे।
आप के स्मरण मात्र से जीवन अराजक होने से बचता है,व्यवस्थित रहता है।आप की अनुपस्थिति में दस वर्ष गुजर गए जिस दिन आप को याद न करु तो लगता है कि मैंने कपड़े नहीं बदले,ब्रश नहीं किए।आप के साथ बहुत सी मूल्यवान चींजे चली गई।आप के व्यक्त्तित्व के सामने हमारी सारी हदें बौनी है। वो कड़क आवाज,संस्कृतनिष्ठ हिंदी ,समय से टकराती जीवन शैली सब शून्य में समा गई।अब केवल शून्य को निहार सकते है लेकिन शून्य से उतार नहीं सकते।आप की स्मृति और स्मृति बेचैन करती है।
क्या कहूं और क्या अनकहा छोड़ दू।
आप की पाक स्मृति को नमन।
योगेन्द्र यादव जिज्ञासु
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