माई-------
भाइयो में छोटा होने के कारण लगता है उपर्युक्त पंक्तियां हमको ही परिभाषित करती हैं।'
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घर पहुँचने पर ----' खाना ले आयीं !' ?
माई का संवाद कानों में मिसरी घोल देता।
कमरे से एक पेठा , समय- समय
पर एकाध सेव,आम के मौसम में रात में जग कर बगीचे से कुछ आम लेकर अलग से रख लेना। जिंदगी के हर छोटे बड़े दुःस्वारियो पर पैनी नजर रखना।।
माई को हमलोगों के बच्चे भी माई ही कहते है। गांव के बड़े बुज़ुर्ग सुदामा की माई और महिलाएं मलकिन कहती है।
पढ़ी-लिखी नही ,समझदार बहुत है।
उम्र यही कोई पचहत्तर के आस -पास / घर में आज से पांच साल पूर्व तक मिट्टी के बर्तन में दही जमाने की इस्पेसलिस्ट थी , दीपावली में मिट्टी के जले हुए दिए से काजल बनाने की कला और खासकर बच्चो की आंखों में लगाकर परिवार को एकजुट रखना माई के ही बस की बात है।
घास-फूस के मड़ई के ऊपर लौकी -कोंहड़ा करेली आदि तो आज भी पैदा करती है। गांव में लौकी कोहड़ा जरूरत मन्द को दे देना आम बात है । अपने उत्पादों से जिंदगी चलना माई का खास हुनर था।
गोईठा की आग अहरा पर मकई-भुट्टा और चने का हो रहा , मौसम के हिसाब से रिकवच आदि बनाना या बनवा देना ।घर के बड़े बुजुर्गों बच्चो के लिए चना चबेना-भेली -राब का बर्ष भर का इंतजाम।घर मे कभी मंदी नही आती
उनका व्यवहारिक तजुर्बा ही ऐसा है।
वर्षो पहले घर के जांता में गेहूं पीसना ,ओखल में घण्टो धान - कूटना घर की महिलाओं के साथ । ये आम बात थी।
त्योहारों को लेकर संजीदा !! घर के देवी देवताओं को लेकर तब भी सतर्क आज भी सतर्क। संगम -गंगासागर हरिद्वार कई बार जा चुकी हैं वो भी पूरे टीम के साथ।
माई हादिक भी है जब चिकित्सा की सुविधा आम नही थी तो गांव में बच्चों का प्रसव माई ही कराती थी।पिता जी नाराज होकर कहते थे कि इ एम बी बी एस की है। जब सामान्य समय के अलावा, मध्य रात्रि में गांव की महिलाएं आती और कहती कि ये बाबू मलकिन कहां बानी ? हमलोगों को समझने में देर नही लगती कि गाँव मे मेहमान आने वाला है।
गर्मी में आज भी रस - भूजा लेकर तैयार रहती है उन पथिको के ख़ातिर जो आराम के लिए बागीचे में रुक जाते है।
पिताजी के न रहने के बाद माई बहुत दुःखी रहने लगी है । शरीर गल गई है । आज- कल की औरतों से लगभग अनमनी सी रहती है।
धान की रोपनी -सोहनी गोबर गोइठा,धान -गेंहू के कुटाई -पिसाई तक का काम 12-14 घण्टे ।
आज भी अरहर ,सरसो ,तीसी, आलू, प्याज अदरक लहसुन आदि माई ही पैदा करती है ।मना करने पर कहती है काम जीवन पर्यंत करना चाहिए नही तो घर का बरकत रुक जाएगी । चाची लोगो के साथ माई का गजब का सामंजस्य वन्दनीय है।
हमने महसूस किया कि छोटे चाचा के साथ माई का पुत्रवत ब्यवहार तब भी था आज भी है। माई, चाचा के लिए दूध-दही छुहाड़ा बादाम का विशेष इंतजाम करती थी यथा अपने हाथ से बादाम पीस कर पीलाना।
पिता जी स्वभाव से बड़े शख्त थे।वो सन साठ के दशक के स्नातकोत्तर थे संस्कृत साहित्य के अच्छे जानकार दूसरी तरफ माई निरक्षर।
पिता जी अपने किसी फैसले में माई को सरीक नही किये।तालमेल तो ठीक थे लेकिन विचारो में बड़ी असमानता।
माता -पिता जी बुआ को बहुत मानते थे अन्य वजहों में एक वजह यह भी था कि फुआ एकलौती पुत्री थी | असमय उनके सिर से उनके माता का साया उठ गया था नतीजन माई ही फुआ को डोली में बैठाकर विदा की थी।फुआ एक सम्पन्न घराने में ब्याही गयी है फिर भी फुआ की बीमारी आदि की खबर सुन कर तड़प उठती है।
मामा के गांव की 'रधानी वाली फुआ ' गजब का सामंजस्य उनका मामा के गांव में भी। माई सम्बन्धो को जीने की महारथी है।
माई जिंदगी के छोटे छोटे हिस्से को लेकर खबरदार रहती है यकीनन जिंदगी द्वारा दिये गए हर रोल में फिट बैठती है।
अपने स्नातक के दिनों में माई के न चाहने पर एक सोने का सिक्का लेकर बेच दिया था जब समझ बढ़ी तो अपराध बोध हुआ लेकिन माई ने बेहद दार्शनिक अंदाज में जीवन के क्षणभंगुरता को समझाते हुए हमारे मन के मैल को मिटा दिया।
माई की ताकत कम हो गईं है लेकिन काम करने की वही जिजीविषा।
कमोवेश सभी माई एक जैसी ही होती है।
जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा गुजारने के माई अब पांच रुपये का पच्चीस ग्राम आलू का चिप्स खरीद कर लाती है और कहती है__' ये बाबू जिज्ञासु हो---'निशांत के दे द।। बड़ी भोली है , नही समझ पाती है कि मार्केट की ठगबुद्धि ने आलू दो सौ रुपये किलो कर दिया।
जिये जा रही है बनते बिगड़ते माहौल में नाती-नातिन के शादी- विवाह का फिक्र लिए।
ऐसी कथाएं और लोग मिथकीय पात्र होते हैं जिनका लोग आस्था वश पूजन करते है परंतु माई प्रत्यक्ष उदाहरण है जो किवदंतियों से परे है।
आदर व्यक्त करने के लिए शब्द नही है मेरे पास----
भावुकता हावी हो गई है।...
✍️ योगेन्द्र यादव (जिज्ञासु) गोरखपुर
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