गुरुवार, 27 मई 2021

आपदा में शिक्षा: वैरन खत से वर्चुअल मीटिंग तक के खतरे और समाधान

● विद्यामाता नाराज न हो जाए
   इसलिए बस्ते को छू कर सलाम करना स्थाई आदत थी

● पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा           चबाकर मिटाया था

पुस्तक के बीच पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास था.. 
कक्षा आठवीं तक देवरहा बाबा का फोटो औजार बॉक्स में बराबर बना रहा हमारी ऐसी मान्यता थी उनके रहने से गणित में कृपांक का झमेला नहीं रहेगा।
कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल नहीं था.. 
हमारे बड़े भाई वकील साहब इसके महारथी थे।
हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव नहीं था.. यह भी अनुकरण पर आधारित था अन्य सहपाठी इसको वार्षिक उत्सव के रूप में ही सेलिब्रेट करते।
माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी.. न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी.. सालों साल बीत जाते पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे । अलबत्ता  हम पिता जी के अंडर प्रेशर थे।
एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा हमने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं.. 
कक्षा तीन में सुदामा मास्टर के डंडे से कभी इगो नहीं टकराया दरअसल हम जानते ही नही थे कि ईगो होता क्या है ?
पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया नहीं कक्षा के बहुतेरे लडके इस प्रक्रिया में शामिल थे। ,"पीटने वाला और पिटने वाला दोनो खुश थे" , 
हम अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं,क्योंकि हमें "आई लव यू" कहना नहीं आता था.. 
आज हम गिरते -सम्भलते ,संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं.. 
हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है, हमे हकीकतों ने पाला है ,हम सच की दुनियां में थे.. 
कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे.. 
अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है, वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं.. 
हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक साथ थे,काश वो समय फिर लौट आए..
मौत के सूचना पर हम रोते थे बहुत दुःखी होते थे लेकिन हाल के वर्षों में हम दार्शनिक हो गए मृत्यु को उत्सव के रूप में मनाने लगे है।
माई की जिजीविषा अब भी है वह अगले साल के लिए आज भी अचार बनाती है। अब भी उतना ही जीवट है जितना पहले । ये जेनरेशन का फर्क है।
हमारी पीढ़ी वो आखिरी पीढ़ी है - बैरंग खत से लाइव चैटिंग और वर्चुअल मीटिंग एक साथ देखी।हम आखिरी लोग है जो बालों में सरसो का तेल गभोर कर स्कूल और शादियों में जाते थे।
हम खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग देखे हैं जो लगातार कम होते गए।
हमने बदले माहौल में खुदगर्जी, बेमुराववती,अनिश्चितता अकेलापन और निराशा भी देखी
अविश्वसनीय सा नजारा देखा। 
जब अपनी ही नाक और मुंह को छूने से डरते है लोग।सब कुछ बदल गया लेकिन यह बदलाव अंदर से हिला दिया।
हमारा जीवन किसी उपन्यास से कम पठनीय नहीं होता।कुछ लोग आगे चलकर अपाठ्य गद्य हो जाते हैं,जिनके भीतर संवेदना और जिंदादिली बची रहती है,वो अपनी लय और ध्वनि को दोहराते रहते है।इस जानलेवा बदलाव और अपने लय को पुनः प्राप्त करने के लिए छायादार वृक्ष लगाने पड़ेंगे।नदी नाले तालाब बचाने पड़ेंगे।यह बिल्कुल सम्भव है कि पहाड़ तोड़ कर अय्याशी का अड्डा बनेगा तो पृथ्वी एक न एक दिन जरूर डोल जाएगी।कीड़े से लडने के लिए इंसान को अपनी अय्याशी रोकनी पड़ेगी।प्रकृति को जीना पड़ेगा।
✍️योगेन्द्र यादव जिज्ञासु

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