शुक्रवार, 4 जून 2021

पर्यावरण दिवस विशेष: रोग और शोक मुक्त जीवन के लिए प्रदूषण मुक्त पर्यावरण चाहिए

चार दशक का संस्मरण
राजधानी का जिक्र होते ही लखनऊ और दिल्ली की तर ध्यान जाता है लेकिन जिस राजधानी का जिक्र हम कर रहे है वह गोरखपुर जनपद में स्थित हमारा गांव है।इस का नाम राजधानी क्यो पड़ा यह भी एक अनजान कहानी है यह मर्यो की राजधानी थी इसलिए राजधानी पड़ा ऐसी बहुत सी कहानी हवा में तैरती है हलाकि राजधानी बुद्ध कालीन गणराज्य था इसकी ऐतिहासिकता से मेल है।यह इलाका घनघोर जंगल था कदाचित मोरो के कूक से गुंजायमान था तभी तो मोरिय प्रदेश कहलाया।
हमारे पूर्वज बाढ़ पीड़ित के रूप में 1896 में 20-25 की संख्या में रुद्रपुर से आए थे।यहां पहले से रिश्तेदारी का एक घर आबाद था।
 80 का दशक आते आते इलाके के जमींदार कमजोर हो गए थे अब तक गांव में छोटे छोटे 52 पूर्वे हो गए थे।मेरे गांव की आबादी बहुजातीय आबादी है ।केवट बिंद मल्लाह चमार और पासी की संख्या ज्यादा है। ब्राह्मण अहीर क्षत्रिय की संख्या लगभग बराबर है।मुसलमानों में जुलाहों की संख्या भी ठीक ठाक है।कुम्हार और लोहार कुर्मी कोयरी भर-भूज,नोनिया भी है। सोनार खटीक ,कहार,बरई - बारी ,लाला और भूमिहार दो दो घर है। अलबत्ता बनियो की संख्या भी ठीक है।कुल मिलाकर किसी एक जाति का प्रभुत्व नहीं था।
उस समय गांव में बहुत गरीबी थी खेती के साथ साथ पशुपालन जीवन का आधार था।सिंचाई की उन्नत सुविधा थी।गांव में विद्युत उपकेंद्र स्थापित हो चुका था।यद्यपि कि हमारे घर 1967 में बिजली आ चुकी थी दूसरे उपकेंद्र से।विद्युत लगभग 24 घंटे रहती थी।
गांव की सड़के पगडंडी थी।सड़कें मुझहनी,मदार और गुरुखुल से पटी थी।अब तरक्की के नाम पर पेड़ काट दिए गए पक्की सड़के और धुआ छोड़ती गाडियां फर्राटा भरती है।होश संभालने वाली नस्लें प्राकृतिक जीवन छोड़कर पान बीड़ी सिगरेट में मस्त और तथाकथित तरक्की ने बीमारियो को जाने अंजाने आमन्त्रित कर रहे हैं।
 राजधानी चौराहे पर 2-4 दिन दुकानें थी। गाय -भैंस, फारेन , गोरा नदी और संठी ताल में चरने जाती थी।मूंग मसूर और अरहर जैसी दलहनी फसले भी होती थी। गन्ना मूंगफली गेहूं और धान की खेती प्रमुखता से होती थी।ज्वार बाजरा मक्के की खेती सम्पन्न किसान करते थे।सब्जी की खेती शुरू हो गई थी।
हमारे टोले में सिर्फ अहीरों का 12 घर था/ 3 लोग भारतीय रेल में और दो लोग शिक्षक थे।टोले में एका थी।किसी अन्य टोले से झगड़ा झंझट होने पर एक साथ सभी लाठी लेकर निकल पढ़ते थे।2 लोग जबर सोखा थे जो वर्ष में 2 बार काली माई की पूजा चढ़ाते थे।सबके घर से चंदा लगता था।पूजा चढ़ाते समय सोखा पर देवी सवार हो जाती थी हमारे मन में भी यही धारणा बैठ गई थी।
हमारे टोले के बगल में मिश्रित जाति की 50 घर की आबादी  खिरीहवा थी जो सांस्कृतिक रूप से बहुत सम्पन्न थी।वहां अक्सर कजरी फगुआ आल्हा और हरि कीर्तन होता था।
गर्मियों में तरकुलहा का मेला लगता था जहां से वर्ष का मसाला आदि लाते थे लोग।एक महीने तक मेला लगता था जिसमें बंगाल और नेपाल तक के दुकानदार आते थे।
मेले में उस दौर की बंगाल की प्रसिद्ध नौटंकी देखे थे।हमारे गांव के मदन कमल बनिया भी दुकान लगाते थे।
दशहरे का मेला राजी में लगता था।मेले में भीड़ बहुत होती थी।बच्चे वर्ष भर दशहरे के मेले का इंतजार करते थे
बाल मन के उस उत्साह को दुनिया का कोई पैमाना नहीं माप
सकता है।
 हर घर से एक लोग अखाड़े में जाते थे।मै बहुत कमजोर और शांत चित्त लड़का था।हममें कोई दिलचस्पी नहीं थी।घर में एक रेडियो थी पूरे गांव के लोग खेती- किसानी बिरहा आदि सुन लेते थे।घर के पूरब में फुरसत केवट का घर था जिनके कुएं पर गांव के लोग स्नान करने जाते थे।फुरसत मुंबई रह चुके थे।मिस्त्री थे/ चाय इत्यादि भी बना कर पीला देते।उनके बड़े बड़े आम के दो पेड़ थे बचपन के शुरुआती दिनों में हमने भी खूब आम खाए।
समाज में परस्परिक निर्भरता थी।रामजतन धोबी,विश्वनाथ लोहार ,चन्द्रशेखर नाई ,दुब्बर कुंभकार अपने जातीय वृत्ति को लेकर प्रायः हमारे टोले में आते थे।
अकलू, कीताबुल और मोहर दर्जी थे।इसमें कीताबुल समय के पावंद थे।मेघू मुसहर का घर आना जाना था अक्सर मुर्गा लेकर आते थे।कुछ मछली वाले भी समय समय पर मछली पहुंचा देते थे।
 छावनी टोला वाले पण्डित बड़े सीधे थे लालची बिल्कुल नहीं थे ठाकुर जी वाला पत्रिका लेकर आए दिन डटे रहते थे।भले व्यक्ति थे।
रामरती कटिया दौरी के सीजन में खेत खेत पान लेकर दौड़ते थे।मित्तन बर्फ बेचते थे।काकर खरबूजा तरबूजा बर्फ वाले पैसा नहीं लेते थे उसके बदले अनाज लेते थे।
हमें याद है सुबह मुर्गा बोलते थे ठीक उसी समय मस्जिद से अज़ान होती थी।ब्रह्म मुहूर्त में सब जगने के आदी थे।
बैलों के गले में बधी घंटी उनके नाद पर पहुंचते ही बजने लगती।
उस दौर में सारंगी बजाते गांधी टोपी पहने एक मुस्लिम भिक्षाटन के लिए अक्सर आते थे। उपदेशात्मक कविता कहानी कहते थे मसलन - हाथी से हजार हाथ और लम्पटों से 10 हजार हाथ दूर रहो।
जोगी जाति के लोग वर्ष में एकाध बार फेरी लगाते थे।शादियों में बरात दो दिन के लिए आती/जाती थी।गांव के रामाज्ञा नाट्य मंडली मशहूर थी।आल्हा रुदल, डाकू मानसिंह,भक्त पूरण मल तथा सती बिहुला बाला लखनदर आदि नाटक बहुत होते थे।चांद मियां की बैंड पार्टी की उस दौर में धूम थी।दो एक और मुसलमान बैंड पार्टी चलाते थे।शादी विवाह के परछावन ,द्वारपूजा आदि की रौनक हुआ करती थी बैंड पार्टियां। चिनगी डोम के पिता विवाह जैसे अवसरों पर डाल  मऊर लेकर हाजिर रहते थे। दर्जन भर लोग डोली ढोते थे।हमारे टोले पर भोला कहार की पार्टी आती थी।यह बात दीगर है की श्रम का शोषण अपने चरम पर था। बावजूद इन सबके गजब का समाजी ताना बाना था।अधिकतर लोगों के घर कच्चे लेकिन ईमान के पक्के थे।
गांव में पवरिया नगरिया और नट जाति की महिलाएं समय समय पर अपनी गीत गवनही की प्रस्तुति देते थे।
अन्य करतब दिखाने वाले मदारी आदि खूब आते थे।
मदारी का डमरू बजते ही क्या बच्चे क्या बूढ़े सब एकत्र हो जाते थे। कभी कभी टोना टोटका और नजर उतारने आ जाते ।ग्रामीण उनका बहुत सम्मान करते थे। उस दौर में चेचक बहुत होता था।धार कपूर खूब चढता था।अमहिया का माली फूल लिए घूमता रहता था ।
अब लोग आधे अधूरे मन से मिलते है आधा अन्दर से छुपे रहते है भाषा के चयन में बेहद औपचारिक होते है जिसमें हार्दिकता नहीं होती है उस दौर में माई भौजी पहुना बबुआ फगुआ दिया दियारी सब के सब सहज और ईमानदार थे।
गांव में अमन और  शांति नहीं थी। पुरई डाकू थे।पुलिस मुठभेड़ में मारे जा चुके थे।उस मुठभेड़ की चर्चा आम थी।इस्लाम मियां के घर एक भीषण डकैती हुई थी जिसमें डाकुओं का सरगना मार दिया गया था।तब मै 4-5 साल का था। स्मृतियां धुधली सी है हम भी बमबाजी की आवाज सुने थे।बगल के निषादों ने बदमाश जवाहिर को मार डाला था यह सब घटनाएं तनिक तनिक याद है।
स्कूल खुल चुके थे कम संसाधनों में ही सही लडके पढ़ने जाते थे।हमारे टोले की अहीरो की लड़कियां अभी पढ़ाई नहीं शुरू की थी अलबत्ता एक जो रिश्ते में बुआ लगती थी पांचवीं पास थी।
बरही के जमींदारों की गांव और अगल के गांवों में छावनी थी। उनकी गांव में हनक थी।राजधानी खास के पलटू पासी ने समाज में मानवता का एक किरदार पेश किया और बहुत प्रसिद्ध हुए उनका धन्य धान वैभव उस दौर के चर्चा के केंद्र में थे।वे अल्पायु में ही गुजर गए थे।
सुरहू सेठ थे सीजन में बड़े किसानों के अनाज खरीद लेते ।बड़े व्यापारी थे।सम्पन्न थे।व्यापार जगत में धाक थी।
यही वो दौर था जब गेहूं तेल चावल आदि की चक्की लगनी शुरू हो रहा था।अब तक प्रायः घरो की महिलाएं धान गेहूं कूटती और पिसती थी।
उस दौर में हमारे यहां 2 खपड़ैल और एक ईंट का मकान और एक मड़ई थी।ज्यादातर लोग खपड़ैल और मड़ई में ही रहते थे।हमारे खपड़ैल घर की यादें चटख है।खुले आंगन और उसमे वर्षा के पानी का अद्भुत नज़ारे। खपड़ैल घर के मुंडेर पर काग का बैठना।घर के ओसारे में  गौरैया का घोसला आज भी याद है ।माई की घी पोती रोटी। सिकहर की दही।माई की कहानी और उनके किरदारों में खुद जीना और कहानी के अंत तक पशोपेश में रहना।
गांव के जय नाथ और जगदीश डॉक्टर थे तब डॉक्टर घर घर जाते थे।ये लोग हर समय मौजूद रहते थे।दवाई को गरम पानी से खाने की हिदायत सदा देते थे। हमें याद है उन दिनों खजुली बहुत होती थी एस्केबियाल से खज़ुली और बिटेक्स से दाद दिनाय का राम बाण इलाज होता था।
प्रकृति से छेड़ छाड़ कम था ।नदिया सदा नीरा थी ।ताल तलैया भरे रहते थे।सड़कों के किनारे घर कम थे। साइकिल हमारे बचपन के दिनों की हवाई जहाज थी।वह आपातकाल में हमारे साथ रहती थी।हमारे गांव से 35 किलोमीटर की दूरी के लिए साइकिल का भरोसा करते थे।बीच बीच में पेड़ की छांव और नदी के किनारे रुकने का आनंद उठाते थे।साइकिल और उससे तय की गई दूरी अब हमारे स्मृति का हिस्सा बन चुके है।साइकिल हमारी यात्राओं का श्रंगार था।सच यह है कि आज भी साइकिल का विकल्प हवाई जहाज और कार नहीं है।नदियों और कुएं का पानी पीने योग्य था।
जीवन प्रकृति पर निर्भर था ।युग भी प्राकृतिक निर्भरता का था।चार पांच दशक पहले तक बड़े बड़े बरगद,पीपल और आम आदि के पेड़ थे। 
अब हम जंगलों को काट कर अपनी जमीन बंजर कर दिए अब आने वाली नस्लों को एक बंजर और प्रदूषित भारत देने में सफल होते जा रहे है।
यह भी सच है सरकारों ने पेड़ आदि लगाने का कई कार्यक्रम चलाए लेकिन सफल नहीं कहा जा सकता।पशुपालन मुख्य व्यवसाय था फॉरेन नाला की सैकड़ों एकड़ की जमीन चारागाह था।लेकिन प्रदूषण ने चारागाह को रद्द कर दिया।
यह आखिरी पीढ़ी है जो बचे पेड़ो का बचा सकती है नदिया फिर से सदा नीरा हो सकती है बशर्ते इंसान अपनी और अपने औलादों के अनावश्क मांगो पर लगाम लगाए।हलांकि अब यहां से लौटना मुश्किल है लेकिन दिनचर्या कभी भी प्रकृति के अनुरूप किया जा सकता है। जीवन को दीर्घायु बनाने के लिए प्रकृति को जीना पड़ेगा।पर्यावरण को बचाना पड़ेगा।कृत्रिम ऑक्सिजन से फेफड़ों को धड़काया नहीं जा सकता है।रोग और शोक मुक्त जीवन के लिए प्रदूषण मुक्त पर्यावरण चाहिए।
योगेन्द्र यादव जिज्ञासु

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

16वां अयोध्या फिल्म फेस्टिवल संपन्न, ऐतिहासिक रहा आयोजन

  अवाम का सिनेमा - कई देशों की फिल्मों का प्रदर्शन - अन्य कई कार्यक्रम भी हुए आयोजित अयोध्याः काकोरी एक्शन के महानायक पं. राम प्रसाद ‘बिस्म...